पाडर के आसमानो मे बादलों को लगातार देख मेरे भीतर एक कविता रूप ले आई, आशा है आपको पसंद आएगी ||
ये बादल क्यों नहीं हैँ थकते?
ये बादल क्यों नहीं हैँ थकते,
आज कल यूँ बरस बरस के?
शायद खुश हैँ आजकल ये
हम सब के घरों मे रहने से
या गम मे रो रहें हैँ ये ,
धरती पे देख जाने इतनी जाने से..
क्या इन्हे ये मालूम नहीं
हमें गुच्छयां लानी है जंगलों से
क्या ये भूल गए हैँ
कुछ लोग हमारे हैँ सड़को पे ..
क्या धरती सो गई है नींद गहरी
जो जगाने इसे ये कोशिश करते हैँ
क्या झरने खो रहें हैँ घर अपने
जो बनाने महल इनके ये बरसते हैँ
क्या इंसानियत हो रही है हर दिन बहरी
जो गरज के बिजली ये इसके कान भरतें है
क्या लोग रहे हैँ अलग ही माला जपने
जो मन्त्र सुना अपने इन्हे ये मुस्कान भरते हैँ
कोई कह दो इन्हे कि फ़ायदा नहीं यूँ
अब पाडर मे शोर मचाने का
जो करना ही था सबका भला यूँ
तो पालघर मे तुम्हे बरस जाना था
क्यों अब यहाँ बिजली गिराते हो
किस बात से हमें डराते हो
जो सबका भला यूँ चाहते तुम
तो वूहान मे ही पहले बिजली गिराते तुम
ये बादल क्यों नहीं हैँ थकते
आज कल यूँ बरस बरस के?
“Ash”