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सबसे पहले आप सभी को मेरी ओर से नमस्कार! जिस प्रकार आप सभी जानते हैं कि पाडर में सौणगल नामक जो जंगल है वहां पर बहुत भीषण आग लगी है तो मैं चाहता हूं ,वन विभाग ,प्रशासन और जो स्थानीय लोग हैं वह इस विषय पर कड़े से कड़े कदम ले ,जंगल मे भीषण आग को देखकर मेरे मन के भावों ने शब्दों का रूप लिया और इस पर मैंने एक कविता लिखी, जिसमें,सूक्ष्मजीव और जितने भी रेंगने वाले जीव है जो वहां पर अपनी जान गवा चुके हैं तो उनका दर्द मैंने इस कविता में बयान किया है और मैं चाहता हूं कि इस कविता को गौर से पढ़ें और एक बार आपको जरूर लगेगा कि हमें अभी भी वहां जाकर वहां के जो वन्य संपदा और पेड़ पौधों को बचा सकते हैं,यहां लगभग 20 से 25000 तो बड़े-बड़े पेड़ खत्म हो चुके हैं, आप सभी से आग्रह है की आप वहां जाकर आग बुझाने में अपना योगदान जरूर दें ,मानवता यही सिखाती है ,और इंसान का यह कर्तव्य भी बनता है ,कि वह प्रकृति के साथ खिलवाड़ ना करें और यदि ऐसा किया ,तो प्रकृति इसका जवाब हमें जरूर देती है आप सभी महानुभाव को मेरी ओर से विनम्र निवेदन है कि इस पर जरूर अपना ध्यान केंद्रित करें| धन्यवाद| Bodybuilding på vegansk måde, del I: træningen testogel træningsplaner for fitness og bodybuilding – big-sellercom.
“दरिया भी करीब था”
किसी से कह ना सका
किस्सा ही अजीब था
जंगल भी जलता गया
और दरिया भी करीब था
पंछी यू फड़फड़ाने लगे ,
दिन- रात वो रोते रहे ॥
घर जल गया उनका सुनो ,
हम चैन से सोते रहे ॥
यह क्या हुआ किसने किया ,
इंसान नहीं वो रकीब था ॥
जंगल भी जलता गया
और दरिया भी करीब था
वन संपदा सब वन्यजीव ,
बेजुबान जल कर मर गए ॥
लाखों-करोड़ों सूक्षमजीव
घुट घुट के भस्म वो बन गए ॥
वो जल गये जंगल के संग,
होठों पे उनका यह गीत था ॥
जंगल भी जलता गया
और दरिया भी करीब था
आंखें हमारी रो पड़ी ,
पंछी दिखे रोते हुए ॥
कितने हताश हुए होंगे वो ,
देख अपना कुटुंभ जलते हुए ॥
हम लुट गए हाय रे हाय,
कैसा हमारा नसीब था ॥
जंगल भी जलता गया
और दरिया भी करीब था
जिसने जलाया घर मेरा ,
वो कैसे खुश रह पाएगा ॥
मेरी हया उसको लगे ,
समय उसका भी यूंही आएगा ॥
मैं उस घड़ी बर्बाद हुआ ,
जब जाड़े का दिन नजदीक था ॥
जंगल भी जलता गया
और दरिया भी करीब था
तेरे जन्म से तेरे मरने तक ,
मैंने साथ तेरा निभाया था ॥
फिर इस तरह निर्लज्ज होकर,
क्यों जिंदा मुझे जलाया गया ॥
मैं पेड़ हूं ,पत्थर नहीं ,
बचा लो मुझे बचा लो मुझे,
बस वह मांगता यही भीख था ॥
जंगल भी जलता गया
और दरिया भी करीब था
हमें जलता सब देख पर,
आग बुझाने कोई ना आता है॥
छवि “समाज द्वार “पर भेज सब,
हमें बचाना कोई नहीं चाहता है
हिरण जले गीदड़ जले,
भालू जला कहीं रीछ था ॥
जंगल भी जलता गया
और दरिया भी करीब था
कई वर्ष लग जाएंगे अब ,
मुझे फिर हरित होते हुए ॥
“सौणगल” नामक जंगल हूं मैं ,
सुन लो अरज रोते हुए ॥
मुझको गिला नहीं दुनिया से ,
अर्जी मेरी “वन विभाग” से ॥
मुझे फूंकने वाला कोई नहीं ,
मेरा अपना ही शरीख था ॥
जंगल भी जलता गया
और दरिया भी करीब था
लेखक:-सोनू भारद्वाज