पिछले साल मचेल मे हुए झगड़े को लेकर कई लोगों मे ये शंका थी कि माँ चंडी नाराज़ हो गई होंगी… उसी शंका को दूर भगाने और बैर कि भावना को हमेशा के लिए पनपने से रोकने के लिए ये शब्द माँ चंडी ने मेरे दिल मे प्रकट किए, जो ये कविता के रूप मे उभर आए | ध्यान से पढ़िए और दिल मे उतारिए….
“”मेरी पुकार””
यही पर्वत थे तब भी
जब मेरी लौ किसी मे जागी थी
जब तब वैभव मेरा नहीं थमा
तो फिर भला अब कैसे थमेगा
पत्ते तो हर पतझर गिरते हैँ
फिर बहार कब कहो रुकी है
अंधेरा तो हर रोज़ होता है
फिर सवेरा कब कहो रुका है
फिर चंद झगड़ों से ये मशाल, भुझेगी
तुमने ये कैसे सोच लिया
फिर चंद लोगो से इस धरती की शान, गिरेगी
तुमने ये किसे मान लिया
तुम कोना छांटो इस भ्रमांड का
तुम गाँव शहर केवल मत देखो
मे काली, मे जीवन हूं, मे ही हूं सृष्टि
तुम माँ चंडी ही केवल मुझ मे मत देखो
मे मृत्यु हूँ, मे ही जीवन
तुम झगड़ों के बांध से मुझे मत सींचो
मे मचैल हूँ, मे ही पूरे देश
तुम गाँव शहर मे रेखा मत खींचो
तुम लाख पहाड़ बनाओ अपने मन मे
रण मे टूट जाने हैँ ये क्षण मे
जंजीरे फैंक ये मन की तुम करो ये काम
विमान से नहीं, तनिक पैदल ही आओ एक बार मेरे धाम
फिर जानो गे कि…
यही पर्वत थे तब भी
जब मेरी लौ किसी मे जागी थी
जब तब वैभव मेरा नहीं थमा
तो फिर भला अब कैसे थमेगा ||
By: Ash
कोटि कोटि धन्यवाद ||
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